संकट के अप्रयाप्त उभोग का
सिद्धांत और मार्क्सवादी सिद्धांत पर एक संक्षिप्त नोट
19 वीं सदी के आरम्भ में जब पूंजीवादी दुनिया में संकट की
चक्रीय और नियमित घटना एक आम बात बनने लगी, संकट और उनके कारण की व्याख्या करने के
लिए कई सिद्धांत सामने आये. इन व्याख्याओं में से एक जो काफी लोकप्रिय हुआ और आज
तक है, वह तथाकथित "अप्रयाप्त उपभोग” का सिद्धांत है। दुसरे शब्दों में यह एक ऐसा सिद्धांत है जो
संकट की व्याख्या “अप्रयाप्त उपभोग” के सन्दर्भ में करता है.
थोड़े शब्दों में रखा जाए तो अप्रयाप्त उपभोग का सिद्धांत
कहता है कि चुकि पूंजीवादी समाज मजदूरों
के शोषण पर आधारित है, मजदूरों का उपभोग भी सिमित होता जाता है और अनिवार्य रूप से
बहुत ही छोटा होता जाता है. अगर मजदूर जितना उत्पादन करते है उतना उपभोग नहीं करते
तो बेशी मूल्य कैसे प्रत्याक्षिकृत (बेचा) किया जा सकता है.पूंजीवाद के अंतर्गत किसी माल का मूल्य
स्थिर पूँजी + परिवर्ती पूँजी + बेशी मूल्य के रूप में प्रकट होता है. तो सवाल यह
उठता है कि बेशी मूल्य का अंश कैसे प्रत्याक्षिकृत होता है.
यह ‘अप्रयाप्त उपभोग’, क्रय
शक्ति में कमी मजदूरी में कमी या बहुतयात
आबादी की गरीबी पूंजीवादी आर्थिक संकट के कारणों का सिर्फ एक पहलु है, इसलिए उपभोग
बढ़ा कर, क्रय शक्ति में वृद्धि कर के या आम गरीब आबादी के जीवन स्तर में सुधार कर
के भी पूंजीवादी संकट से पार नहीं पाया जा सकता जैसा कि कीन्स और कलमघिस्सू बुर्जुआ अर्थशाश्त्री और
कुछ सुधारवादी नकली कम्युनिस्ट अक्सर नुश्खे पेश करते रहते है.
अप्रयाप्त
उपभोग के सिद्धांत के पैरोकार पूंजीवादी समाज के कुल मांग का कारण सिर्फ व्यक्तिगत उपभोग में ही देखते है जबकि कुल मांग
उत्पादक
उपभोग और व्यक्तिगत उपभोग का जोड़ होता है. समाज में उत्पादित
होने वाली वस्तुओं में उत्पादन के साधन, कच्चे माल आदि भी होते है जिसकी मांग
मजदूरों या आम जनता के व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं होती बल्कि उत्पादन को उसी
स्तर पर बनाये रखने के लिए घिस गए उत्पादन के साधनों के प्रतिस्थापन के लिए या नए उत्पादन के साधनों की मांग उत्पादन का और विस्तार करने के लिए, कच्चे माल
के लिए – संक्षेप में पूंजीपतियों द्वारा
उत्पादक उपभोग के लिए- होती है. अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांतकार इस गलती को अक्सर
दुहराते है और समग्र पूंजीवादी उपत्पादन, उसके विकास और प्रत्यक्षीकरण का बहुत ही
गलत और भोंडी समझ पेश करते है.
अक्सर “अप्रयाप्त-उपभोग” के सिद्धांत को
मार्क्स के विचारों के रूप में पेश किया जाता है. परन्तु जैसा कि मार्क्स ने बहुत
पहले ही व्याख्या की है, यह सही नहीं है. हालाकि उत्पादक शक्तियों के व्यापक विकास
के बावजूद जनता के लिए निश्चित रूप से उपभोग में कमी अस्तित्व में होती है, लेकिन यह
पूंजीवादी संकट के कारणों के सिर्फ एक पक्ष को ही रखता है, सिर्फ एकतरफा विश्लेषण
प्रस्तुत करता है. फिर भी यह पूंजीवादी
उत्पादन प्रणाली के एक महत्त्वपूर्ण अंतर्विरोध को व्यक्त करता है जो उत्पादन के
सामजिक चरित्र और हस्तगत के निजी स्वरुप के विरोधाभास पर टिका होता है. मार्क्स ने
इस अंतर्विरोध का वर्णन कई जगह किया है.
पूँजी के दुसरे खंड में मार्क्स ने खुद पूंजीवादी संकट के
कारण के प्रसंग में “अप्रयाप्त -उपभोग” की धारणा का खंडन किया है. अकेला उपभोग (या इसका आभाव)
पूंजीवादी संकट का मूलभूत कारण नहीं है. अगर ऐसा होता तो जनता की क्रय शक्ति बढ़ा
कर इस समस्या का निदान पाया जा सकता था. मार्क्स ने इसका जबाब इन शब्दों
में दिया है:
“यह
कहना सरासर पुनरुक्ति है कि संकट प्रभावी खपत,
या प्रभावी उपभोक्ताओं की कमी
की वजह से हैं। पूंजीवादी व्यवस्था प्रभावी खपत के अलावे खपत के किसी भी अन्य
दुसरे तरीके को नहीं जानता. वस्तुओं के अविक्रेय
होने का केवल एक ही मतलब है कि उनके लिए
कोई प्रभावी खरीदार नहीं पाया गया है यानी,
उपभोक्ता (क्योकि वस्तुएं अंतिम
विश्लेषण में उत्पादक या व्यक्तिगत उपभोग के लिए खरीदे जाते हैं”
वह आगे कहते है:
“लेकिन अगर इस पुनरुक्ति को कोई एक गंभीर औचित्य की झलक देने का
प्रयास यह कहते हुए करता है कि मजदूर वर्ग अपने खुद के उत्पाद का एक बहुत
छोटा सा हिस्सा प्राप्त करता है और जैसे ही यह इसका एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करेगा
और परिणामस्वरुप मजदूरी में वृद्धि होगी, बुराई का निवारण हो जाएगा, तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि संकट हमेशा
ऐसी अवधि में तैयार होता है जिसमे सामान्यतः मजदूरी की वृद्धि होती है और
मजदूर वर्ग वास्तव में वार्षिक उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करता है जो उपभोग
के लिए होता है. इस गंभीर और 'सरल' (!) सामान्य ज्ञान के इन पैरोकारो की दृष्टि से, इस तरह की अवधि को, उलटे, संकट को दूर करना चाहिए। " Marx, Capital, vol.2, pp.414-15
दुसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था में मंदी आने के ठीक पहले
तेजी के चरम पर मजदूरी में बढ़ने की प्रवृति रहती है, जब श्रम की आपूर्ति में कमी
पायी जाती है. इस लिए मांग में कमी अति-उत्पादन के संकट का वास्तविक कारण नहीं
माना जा सकता.
लेनिन अपनी पुस्तक “आर्थिक
स्वछंदतावाद का चर्तित्र चित्रण” में संकट के अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांत के पैरोकारो की खबर लेते हुए और
संकट के मार्क्सवादी सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहते है:
“पूंजीवादी समाज में संचय के तथा
उत्पाद के प्रत्यक्षीकरण के विज्ञानं सम्मत विश्लेषण (मार्क्सवादी) ने
इस सिद्धांत के आधार को ही उलट दिया और यह भी लक्षित किया कि ठीक संकटों से पहले
की अवधियों में मजदूरों का उपभोग बढ़ता है, कि
अप्रयाप्त उपभोग (जिसे संकटों का कारण बताया जाता है) अत्यंत विविधतापूर्ण
आर्थिक प्रणाली के अंतर्गत विधमान था, जबकि संकट केवल एक प्रणाली –पूंजीवादी
प्रणाली – का अभिलाक्षणिक गुण है. यह सिद्धांत संकटों का कारण एक और अंतर्विरोध
याने उत्पादन के सामजिक स्वरुप (पूँजीवाद द्वारा सामजिकृत) तथा हस्तगतकरण की निजी,
व्यक्तिगत पद्धति के बीच अंतर्विरोध बताता है.” लेनिन संकलित रचनायं खंड १ पेज ३१७-१८ (दस
खंडो में)
लेनिन आगे इन सिधान्तो के बीच गहन अंतर को स्पष्ट करते हुए
कहते है.
“पहला सिद्धांत (अप्रयाप्त उपभोग
का सिद्धांत) बताता है कि संकटों का कारण उत्पादन तथा मजदूर वर्ग द्वारा उपभोग के
बीच अंतर्विरोध है, दूसरा सिद्धांत (मार्क्सवादी) बताता है कि उत्पादन के सामजिक
स्वरुप तथा हस्तगतकरण के निजी स्वरुप के बीच अंतर्विरोध है. परिणाम स्वरुप पहला
सिद्धांत परिघटना की जड़ को उत्पादन के बाहर देखता है (इसी वजह से, उदहारण के लिए,
सिस्मोंदी उपभोग को नजरंदाज करने तथा अपने को केवल उत्पादन में व्यस्त रखने के लिए
क्लासकीय अर्थशास्त्रियों पर प्रहार करते है); दूसरा सिद्धांत इसे ठीक उत्पादन की
अवस्थाओं में देखता है. संक्षेप में, पहला अप्रयाप्त उपभोग को तथा दूसरा उत्पादन
की अराजकता को संकट का कारण बनता है. इस तरह दोनो सिद्धांत संकटों का कारण आर्थिक
प्रणाली में अंतर्विरोध को बताते है, वहां वे अंतर्विरोध के स्वरुप बताने में एक
दुसरे से सर्वथा भिन्न है. परन्तु सवाल उठता है : क्या दूसरा सिद्धांत उत्पादन तथा
उपभोग के बीच विरोध से इनकार करता है? निसंधेह नहीं. वह इस तथ्य को स्वीकार करता
है, लेकिन उसे मातहत, उपयुक्त स्थान पर ऐसे तथ्य के रूप में रख देता है, जो पूरे
पूंजीवादी उत्पादन के केवल एक क्षेत्र से सम्बंधित है. वह हमे सिखाता है कि यह तथ्य संकटों का कारण नहीं बता सकता, जिन्हें
मौजूदा आर्थिक प्रणाली में, दूसरा अधिक गहन, आधारभूत अन्तर्विरोध अर्थात उत्पादन
के सामजिक स्वरुप तथा हस्तगतकरण के निजी स्वरुप के बीच अंतर्विरोध जन्म देता है. वहीँ पेज -३१८
और भी लेनिन एंगेल्स का हवाला
देते हुए स्पष्ट करते है:
“एंगेल्स कहते है : संकट संभव्
है, क्योकि कारखानेदार को मांग का पता नहीं है; वे अवश्यम्भावी है, लेकिन यक़ीनन इस
लिए नहीं कि उत्पाद का प्रत्यक्षीकरण नहीं किया जा सकता. यह सच नहीं है : उत्पाद का
प्रताक्षिकरण किया जा सकता है. संकट अवश्यम्भावी है, क्योकि उत्पादन के सामूहिक
स्वरुप का हस्तगतकरण के निजी स्वरुप से टकराव होता है” वहीँ पेज ३२२